Siewdass Sadhu and Temple in the Sea
सागर में मंदिर और एक अनन्य भक्त का अदम्य साहस
लगभग अकेले दम पर अथक प्रयास, दृढ़ता, अदम्य साहस, और औपनिवेशिक उत्पीड़न के बावजूद वाटरलू खाड़ी, मध्य त्रिनिदाद में समुद्र तट से पांच सौ फीट दूर एक मंदिर का निर्माण । एक बंधुवा मजदुर और गरीब भक्त शिवदास साधु हमेशा के लिए अमर बन गए है और प्रेरित कर है एक त्रिनिदादी हिंदू की इच्छाशक्ति एवं दृढ़ मानसिकता को । शिवदास साधु (Siewdass Sadhu) (1903 - 1971 ) अद्वितीय प्रशंसा और भक्ति का उदाहरण देते हैं और त्रिनिदाद में अभी तक हिंदू समाज के सपनों और आकांक्षाओं का प्रतीक हैं। त्रिनिदाद का एक राष्ट्रीय नायक! हमेशा के लिए हमारे मन में शानदार ढंग से याद रहेगा।
एक सदी पहले, Bhaarat (भारत), जिसका नाम आज त्रिनिदाद और टोबैगो में हिंदुओं के बीच भय (अंग्रेजो द्वारा बंधुवा मजदुर के रूप में लाने के कारण ) और श्रद्धा (हिन्दुओ की पुण्यभूमि) से भर देता है वहां पर श्री बुद्धराम और श्रीमती बिसुन्दिया के घर 1 जनवरी, 1903 को शिवदास जी का जन्म हुआ था। चार के उम्र में, वह एक नए देश में अपने माता - पिता और दो छोटे भाइयों के साथ अंग्रेजो द्वारा पानी के जहाज में बंधुवा मजदूरी के लिए लाये गए । लोटा और रामचरित मानस दो चीजें 150 वर्ष पूर्व एक पूंजी के रूप में बंधुवा मजदूर अपने साथ ले गए थे।शिवदास जी के परिवार को सेंट्रल त्रिनिदाद में वाटरलू संपदा पर मेहनत मजदूरी के लिया लगाया गया ।
शिवदास जी Barrancore ग्राम में रहे जिसे अब BRICKFIELD के रूप में आज जाना जाता है । माता - पिता की मृत्यु के बाद, शिवदास जी 1926 में पहली बार भारत आए। भारत में पैतृक गांव के पंडित (उम्र के 120 साल) से आशीर्वाद प्राप्त किया। शिवदास जी ने त्रिनिदाद आने से पहले पंडित जी के सामने एक मंदिर का निर्माण करने की प्रतिज्ञा कर ली । 1940, 1946, 1963 और 1970 चार और अवसरों पर भारत की यात्रा करी ।
लंबे समय के सपने को साकार करने के लिए शिवदास साधु, अक्टूबर 1947 में वाटरलू खाड़ी के किनारे पर कैरोनि (Caroni) लिमिटेड से जमीन का हिस्सा खरीदा और चार साल तक गांव और आसपास के निवासियों के साथ मिलकर बंधुवा मजदूरी के बाद समय निकल कर भवन का निर्माण किया परन्तु जब १९५२ में मुर्तिया स्तापित की तो मंदिर ध्वस्त करने का अंग्रेज शाषन एवं कंपनी द्वारा आदेश दिया गया था । भारी मन और उदास आँखों के साथ उन्होंने भगवान के इस निवास को नष्ट करने से इनकार कर दिया। अनुपालन करने से इनकार तथा राज्य भूमि पर अतिक्रमण के लिए 400 डॉलर का जुर्माना के साथ 14 दिनों के लिए जेल में बंदी बनाकर रखा , और मंदिर ढहा दिया । अंग्रेज सरकार ने कहा कि भूमि पर मंदिर का निर्माण नहीं हो सकता है
उनकी रिहाई तत्काल बाद शिवदास साधु ने प्रण लिया "तुमने भूमि पर मंदिर तोड़ दिया, तो मैं समुद्र में एक मंदिर का निर्माण करूँगा "।
17 साल तक शिवदास साधु अपने 'सागर में मंदिर "का निर्माण जारी रखा। अपने उपकरण सरल थे - दो बाल्टी और एक साइकिल। बाल्टी में वह पत्थर , बजरी और सीमेंट रखते और साइकिल के दो हैंडल पर बाल्टी । शिवदास साधु वाटरलू खाड़ी में समुद्र के किनारे से कुछ 500 फीट दूर मंदिर निर्माण के लिए पर साइकिल पर धक्का लगाकर निर्माण सामग्री ले जाते थे । कभी कभी परिवार और ग्रामीणों ने उन्हें सहायता प्रदान की, लेकिन मोटे तौर पर यह लगभग एक एकल प्रयास था । शुरूआत के काफी वर्षो तक लोग उन्हें पागल समझते थे कि भला समुद्र में मंदिर का निर्माण १ साइकिल के जरिये कैसे संभव है ?
1970 में मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ, और शिवदास साधु का भारत की तीर्थ यात्रा (1970 ) के बाद मंदिर की सेवा में शांति से 1971 में निधन हो गया। 1995 में मंदिर के बाहर उनकी पारंपरिक धोती, कुर्ता और माला पहने खड़े श्रद्धामय प्रणाम की मुद्रा में मूर्ति का 5,000 हिंदुओं की उपस्तिथि में अनावरण किया गया।
त्रिनिदाद और दुनिया भर के हिंदुओं लिए इस धर्मवीर (धर्म के रक्षक) का अदम्य साहस, शक्ति और दृढ़ संकल्प एक प्रेरणा का स्त्रोत है ।
"समुद्र में मंदिर" आज धर्मवीर शिवदास साधु की एक स्थायी विरासत के रूप में गर्व से खड़ा है.
लगभग अकेले दम पर अथक प्रयास, दृढ़ता, अदम्य साहस, और औपनिवेशिक उत्पीड़न के बावजूद वाटरलू खाड़ी, मध्य त्रिनिदाद में समुद्र तट से पांच सौ फीट दूर एक मंदिर का निर्माण । एक बंधुवा मजदुर और गरीब भक्त शिवदास साधु हमेशा के लिए अमर बन गए है और प्रेरित कर है एक त्रिनिदादी हिंदू की इच्छाशक्ति एवं दृढ़ मानसिकता को । शिवदास साधु (Siewdass Sadhu) (1903 - 1971 ) अद्वितीय प्रशंसा और भक्ति का उदाहरण देते हैं और त्रिनिदाद में अभी तक हिंदू समाज के सपनों और आकांक्षाओं का प्रतीक हैं। त्रिनिदाद का एक राष्ट्रीय नायक! हमेशा के लिए हमारे मन में शानदार ढंग से याद रहेगा।
एक सदी पहले, Bhaarat (भारत), जिसका नाम आज त्रिनिदाद और टोबैगो में हिंदुओं के बीच भय (अंग्रेजो द्वारा बंधुवा मजदुर के रूप में लाने के कारण ) और श्रद्धा (हिन्दुओ की पुण्यभूमि) से भर देता है वहां पर श्री बुद्धराम और श्रीमती बिसुन्दिया के घर 1 जनवरी, 1903 को शिवदास जी का जन्म हुआ था। चार के उम्र में, वह एक नए देश में अपने माता - पिता और दो छोटे भाइयों के साथ अंग्रेजो द्वारा पानी के जहाज में बंधुवा मजदूरी के लिए लाये गए । लोटा और रामचरित मानस दो चीजें 150 वर्ष पूर्व एक पूंजी के रूप में बंधुवा मजदूर अपने साथ ले गए थे।शिवदास जी के परिवार को सेंट्रल त्रिनिदाद में वाटरलू संपदा पर मेहनत मजदूरी के लिया लगाया गया ।
शिवदास जी Barrancore ग्राम में रहे जिसे अब BRICKFIELD के रूप में आज जाना जाता है । माता - पिता की मृत्यु के बाद, शिवदास जी 1926 में पहली बार भारत आए। भारत में पैतृक गांव के पंडित (उम्र के 120 साल) से आशीर्वाद प्राप्त किया। शिवदास जी ने त्रिनिदाद आने से पहले पंडित जी के सामने एक मंदिर का निर्माण करने की प्रतिज्ञा कर ली । 1940, 1946, 1963 और 1970 चार और अवसरों पर भारत की यात्रा करी ।
लंबे समय के सपने को साकार करने के लिए शिवदास साधु, अक्टूबर 1947 में वाटरलू खाड़ी के किनारे पर कैरोनि (Caroni) लिमिटेड से जमीन का हिस्सा खरीदा और चार साल तक गांव और आसपास के निवासियों के साथ मिलकर बंधुवा मजदूरी के बाद समय निकल कर भवन का निर्माण किया परन्तु जब १९५२ में मुर्तिया स्तापित की तो मंदिर ध्वस्त करने का अंग्रेज शाषन एवं कंपनी द्वारा आदेश दिया गया था । भारी मन और उदास आँखों के साथ उन्होंने भगवान के इस निवास को नष्ट करने से इनकार कर दिया। अनुपालन करने से इनकार तथा राज्य भूमि पर अतिक्रमण के लिए 400 डॉलर का जुर्माना के साथ 14 दिनों के लिए जेल में बंदी बनाकर रखा , और मंदिर ढहा दिया । अंग्रेज सरकार ने कहा कि भूमि पर मंदिर का निर्माण नहीं हो सकता है
उनकी रिहाई तत्काल बाद शिवदास साधु ने प्रण लिया "तुमने भूमि पर मंदिर तोड़ दिया, तो मैं समुद्र में एक मंदिर का निर्माण करूँगा "।
17 साल तक शिवदास साधु अपने 'सागर में मंदिर "का निर्माण जारी रखा। अपने उपकरण सरल थे - दो बाल्टी और एक साइकिल। बाल्टी में वह पत्थर , बजरी और सीमेंट रखते और साइकिल के दो हैंडल पर बाल्टी । शिवदास साधु वाटरलू खाड़ी में समुद्र के किनारे से कुछ 500 फीट दूर मंदिर निर्माण के लिए पर साइकिल पर धक्का लगाकर निर्माण सामग्री ले जाते थे । कभी कभी परिवार और ग्रामीणों ने उन्हें सहायता प्रदान की, लेकिन मोटे तौर पर यह लगभग एक एकल प्रयास था । शुरूआत के काफी वर्षो तक लोग उन्हें पागल समझते थे कि भला समुद्र में मंदिर का निर्माण १ साइकिल के जरिये कैसे संभव है ?
1970 में मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ, और शिवदास साधु का भारत की तीर्थ यात्रा (1970 ) के बाद मंदिर की सेवा में शांति से 1971 में निधन हो गया। 1995 में मंदिर के बाहर उनकी पारंपरिक धोती, कुर्ता और माला पहने खड़े श्रद्धामय प्रणाम की मुद्रा में मूर्ति का 5,000 हिंदुओं की उपस्तिथि में अनावरण किया गया।
त्रिनिदाद और दुनिया भर के हिंदुओं लिए इस धर्मवीर (धर्म के रक्षक) का अदम्य साहस, शक्ति और दृढ़ संकल्प एक प्रेरणा का स्त्रोत है ।
"समुद्र में मंदिर" आज धर्मवीर शिवदास साधु की एक स्थायी विरासत के रूप में गर्व से खड़ा है.
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