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विरक्त सन्त : स्वामी रामसुखदास जी
3 जुलाई/पुण्य-तिथि विरक्त सन्त : स्वामी रामसुखदास जी धर्मप्राण भारत में एक से बढ़कर एक विरक्त सन्त एवं महात्माओं ने जन्म लिया है। ऐसे ही सन्तों में शिरोमणि थे परम वीतरागी स्वामी रामसुखदेव जी महाराज। स्वामी जी के जन्म आदि की ठीक तिथि एवं स्थान का प्रायः पता नहीं लगता; क्योंकि इस बारे में उन्होंने पूछने पर भी कभी चर्चा नहीं की। फिर भी जिला बीकानेर (राजस्थान) के किसी गाँव में उनका जन्म 1902 ई. में हुआ था, ऐसा कहा जाता है। उनका बचपन का नाम क्या था, यह भी लोगों को नहीं पता; पर इतना सत्य है कि बाल्यवस्था से ही साधु सन्तों के साथ बैठने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। जिस अवस्था में अन्य बच्चे खेलकूद और खाने-पीने में लगे रहते थे, उस समय वे एकान्त में बैठकर साधना करना पसन्द करते थे। बीकानेर में ही उनका सम्पर्क श्री गम्भीरचन्द दुजारी से हुआ। दुजारी जी भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका के आध्यात्मिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। इस प्रकार रामसुखदास जी भी इन महानुभावों के सम्पर्क में आ गये। जब इन महानुभावों ने गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की, तो रामसुखदास जी भी
भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय
25 दिसम्बर/जन्म-दिवस हिन्दुत्व के आराधक "भारत रत्न" महामना मदनमोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम आते ही हिन्दुत्व के आराधक पंडित मदनमोहन मालवीय जी की तेजस्वी मूर्ति आँखों के सम्मुख आ जाती है। 25 दिसम्बर, 1861 को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता पंडित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजाकर्म से ही अपने परिवार का पालन करते थे। प्राथमिक शिक्षा पूर्णकर मालवीय जी ने संस्कृत तथा अंग्रेजी पढ़ी। निर्धनता के कारण इनकी माताजी ने अपने कंगन गिरवी रखकर इन्हें पढ़ाया। इन्हें यह बात बहुत कष्ट देती थी कि मुसलमान और ईसाई विद्यार्थी तो अपने धर्म के बारे में खूब जानते हैं; पर हिन्दू इस दिशा में कोरे रहते हैं। मालवीय जी संस्कृत में एम.ए. करना चाहते थे; पर आर्थिक विपन्नता के कारण उन्हें अध्यापन करना पड़ा। उ.प्र. में कालाकांकर रियासत के नरेश इनसे बहुत प्रभावित थे। वे ‘हिन्दुस्थान’ नामक समाचार पत्र निकालते थे। उन्होंने मालवीय जी को बुलाकर इसका सम्पादक बना दिया। मालवीय जी इस शर्त पर तैयार हुए कि राजा साहब कभी शराब पीकर उनसे बात नहीं करेंगे। मालवीय जी के सम्पादन में पत्र की सारे भारत में ख्याति हो गय
For a peaceful future, Pakistan should accept its Hindu, Buddhist history as its own
Some links from Pakistani media on Pakistan's Dharmic past: Why is great philosopher Kautilya not part of Pakistan’s historical consciousness? https://www.dawn.com/news/1348014 What modern-day Pakistanis have lost in their efforts to distance themselves from their Dharmic origins https://www.thefridaytimes.com/our-lost-heritage-i/ We have rich traditions of poetry, traditions and seasonal festivals https://www.thefridaytimes.com/our-lost-heritage-ii/
Hindi Poem on Valor of Rani Padmini
मुझे न जाना गंगासागर मुझे न रामेश्वर, काशी तीर्थराज #चित्तौड़ देखने को मेरी आँखें प्यासी..! श्याम नारायण पाण्डेय की अमर रचना #जौहर की यह पंक्तियॉं पढ़ते-गाते हुए हमारा बचपन बीता। रानी पद्मिनी का धीरोदात्त चरित्र हमारे मन में अंकित था, और थाल सजाकर उस भूमि की पूजा करने का जो भाव इस कविता में वर्णित है, वह हमारे दिलों में उमड़ता—घुमड़ता था। #पद्मिनी इस देश और भारतीय नारी-जाति के स्वाभिमान और आत्मगौरव की प्रतीक थीं। धीरे-धीरे ऐसी कविताएं और चरित्र पाठ्यक्रमों और लोकजीवन से लुप्त होते गये और इनकी जगह 'बाबा ब्लैक शीप' और 'हम्टी—डम्टी सैट ऑन ए वॉल' जैसी कविताओं ने ले ली। ख़ैर आप लोग वीर रस की यह पंक्तियाँ पढ़िये - थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले ? कहाँ चले तुम राम नाम का पीताम्बर तन पर डाले ? कहाँ चले ले चन्दन अक्षत बगल दबाए मृगछाला ? कहाँ चली यह सजी आरती ? कहाँ चली जूही माला ? ले मुंजी उपवीत मेखला कहाँ चले तुम दीवाने ? जल से भरा कमंडलु लेकर किसे चले तुम नहलाने ? मौलसिरी का यह गजरा किसके गज से पावन होगा ? रोम कंटकित प्रेम - भरी इन आँखों में
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